सरकते हुए टूटी खिड़की के बाजू से
तुझे लोरी गुनगुनाते हुए सुनने
चाँदनी आ पहुँची
अंदर झुकी तो देखा
तू आँखें मूँद गोद में लिए
बचपन का सर सहला रही थी
गाल तेरे कुछ नम थे
और खयालों में तेरे मिट्टी
राज़ सारे जान
भाग पड़ा इस ओर यह चाँद
पर बोल पड़े इससे पहले कुछ
सत-रंगी हो गया आसमान
ख़ैर झट्ट से तुमने भी छिपा लिया बचपन
ओढ़ कर ज़रूरतों का दुपट्टा
नज़रें पलटकर देखा तो रोज़गार की रेल चल गयी
मिलेंगे आज रात फिर बोलकर चांदनी ढल गयी